Wednesday, 18 November 2015

शायर भैया और उनकी ग़ज़ल की मुलाकात , ( भाग : 3 )

जिन्होंने पहला और दूसरा भाग नहीं पड़ा ,  पहले वो पड़े ।

ज़िन्दगी में कईं बार ऐसा होता है की कोई वस्तु या वस्तु का रंग तक किसी की याद दिलाता है , जिस चाकू से अपनी कलाई काटने का ग़ज़ल ने तय किया उसका रंग गुलाबी थी , गुलाबी रंग का ही रुमाल एक खत के साथ शायर ने ग़ज़ल को भिजवाया था , उसे शायर की याद आई , बस कलाई काटने ही वाली थी की ये विचार कहीं ब्रह्माण्ड से उड़ के ग़ज़ल के मन में आ गया की शायर पे क्या बीतेगी अगर वो इस दुनिया से चली गयी , और ग़ज़ल ने चाकू नीचे रख दिया आंसू पोछ के नींद के इंतज़ार में बिस्तर पर लेट गयी ,
'आगे की कहानी ग़ज़ल की सहेली की दृष्टि से जो उसे आज शायर भैया से मिलवाने ले जा रही थी '




बहुत दिनों बाद मेरी सहेली को ये मौका और हिम्मत मिली है की वो अपने प्रेमी से आज मिले , मैं बहुत खुश हूँ , आज उसे लेके पार्क जाना है , मैं जल्दी ही काम करके ग़ज़ल के घर जैसे ही पहुंची , तो देखती हूँ घर के बाहर ग़ज़ल के पिता और भाई हाथ में एक कागज़ लिए बहुत गुस्से में है , मैंने इस दृश्य को ऐसे ही नहीं जाने दिया और छुपकर उनकी बाते सुनने की कोशिश की और जो सुना वो बहुत ही दिल दुखाने वाला था ,  उनके हाथ में कुछ और नही बल्कि शायर भैया का खत था , जिसमे आज की मुलाकात की बात थी , ग़ज़ल के पिता बहुत गुस्से में थे , वो ग़ज़ल से मिलके सब पूछना चाह रहे थे , इतना गुस्से में मैंने उन्हें कभी नहीं देखा था , लेकिन इन सबसे ज़्यादा गुस्सा ग़ज़ल के भाई को शायर भैया पे आ रहा था , उसने पिताजी से कहा की आज ग़ज़ल को जाने देते है उसका पीछा करेंगे तभी शायर भैया तक पहुंच पाएंगे , वार्ना उसे ढूंढ़ना मुश्किल होगा , पिताजी अपने गुस्से पे काबू रख कर बेटे की बात से सहमत हो गए और दोनों घर के बाहर छुप कर ग़ज़ल के बाहर जाने की राह देखने लगे , मुझे यकीन हो गया था की आज अगर ये लोग शायर भैया तक पहुंच गए तो उन्हें कहीं मार ही ना डाले , इतने गुस्से में थे दोनों , एक तरफ मेरी सहेली मेरा इंतज़ार कर रही थी, उसके जीवन के सबसे अनमोल पल को जीने के लिए , एक तरफ शायर भैया पार्क में इंतज़ार कर रहे थे अपनी ग़ज़ल को करीब से देख के शेर सुनाने का और एक तरफ मैं थी जो ग़ज़ल के घर के बाहर पहुँचने के बावजूद भी अंदर जाने में असमर्थ थी , ये ग़ज़ल के साथ ही क्यों हुआ , ये खत इन लोगो को कैसे मिला , सब कुछ कैसे बदल गया , इन सारे सवालो के जवाब ढूढ़ने का वक़्त नही था , वक़्त था तो समझदारी से काम लेने का , मैंने अपनी सहेली के सबसे अनमोल दिन के सबसे अनमोल पल की कुर्बानी दी और उसे और शायर भैया को आज के लिए बचा लिया और घर लौट आई ,
अगले ही दिन खबर आई की ग़ज़ल ने मुझे बुलाया है , मैं उसके घर गयी डर डर के , उसे अपना चेहरा कैसे दिखाउंगी , पर मुझे यकीन था वो मेरी बात समझेगी , मैंने उसे सब बताया की कैसे मैं बाहर तक आने के बाद भी अंदर नहीं आ पायी लेकिन उसने जो बताया वो मेरे लिए बहुत आशार्यजनक था , उसने कहा की घरवालो ने उसे बहुत खरी खोटी सुनाई , पिता  ने हाथ तक उठाया लेकिन माँ ने बचा लिया , 2 दिन में उसकी सगाई है और 1 हफ्ते में उसकी शादी ,
पिताजी के किसी दोस्त का बेटा है , अच्छी बैंक की नौकरी है और शहर से बाहर रहता है , 1 हफ्ते में ग़ज़ल शायर भैया के दिल से निकल कर शहर के बाहर किसी और के साथ रहेगी इस विचार ने मेरी आँखों में आंसू भर दिए , ग़ज़ल ने मुझे एक खत दिया और कहा आज तक तुमने हर खत पहुँचने के लिए मुझसे 1 ग़ज़ल सुनी है मेरे शायर की , आज में तुम्हें उनका एक गीत सुना दूंगी लेकिन इस आखरी खत को उन तक पहुँचा दो , मैं मौन होके सब सुन रही थी , ग़ज़ल ने रोते रोते गीत सुनाया जिसमे शायर भैया ने उनके और ग़ज़ल के विवाह के बाद के दिनों का वर्णन किया था , हम दोनों आंसुओं की बारिश में नहा  चुके थे , में उनकी प्रेम कहानी की एक मात्र साक्षी थी कैसे पहली नज़र से अधूरी मुलाकात तक का ये सफर बीता , जब मेरे कदम ग़ज़ल के घर से बाहर की तरफ बड़ रहे थे मैंने अपने आप से एक वादा किया की भले शायर भैया और उनकी ग़ज़ल की शादी ना हो , भले ग़ज़ल शहर से चली जाए , लेकिन इस प्रेम कहानी को में ऐसे ही व्यर्थ नहीं जाने दूंगी , मैं इन दोनों को एक बार मिलवाऊंगी ज़रूर , भले कैसे भी हो ,
ग़ज़ल की सहेली ग़ज़ल का आखरी खत लेके शायर भैया से मिलने पहुँची ,
आगे क्या हुआ जानिये अगले सत्र में ................

इस लेख को देरी से प्रकाशित करने के लिए क्षमा चाहता हूँ ,
- तनोज दाधीच 

Friday, 13 November 2015

हम खो जाये, हम खो जाए .......

ज़ुल्फ़ें हैं  या काली घटा ,
कौन बतलाये ,कौन समझाए , 
उड़के  ये जब हमपे आये ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
भौहें है या आँखों का ताज , 
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
इतरा के जब ये बलखाये ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
ऑंखें है या विशाल महासागर ,
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
डूबने के लिए जब इनमे जाए ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
रूखसार (गाल) है या कपास ( रुई ) कोई ,
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
छूते ही बस ये हो जाए ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
होठ है या है दो गुलाबी पंख ,
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
देख के इन्हें दिल बेहक जाये , 
हम खो जाये, हम खो जाए ,
हाथ इतने गोरे की क्या बताये , 
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
दूध का रंग फीका पड़ जाए ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
पैर इतने अनमोल है आपके , 
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
उनके नीचे मखमल हम लगाये ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
बदन है या ईश्वर का चमत्कार कोई ,
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
देख के ख़ूबसूरती आपकी ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
सोचो आपको और ग़ज़ल हो जाये 
कुछ पल में ये कमाल हो जाए ,
आपसे लेकिन ये राज़ छुपाये  ,
'तनोज' खो जाये , 'तनोज' खो जाये। 

- तनोज दाधीच 

Friday, 6 November 2015

शायर भैया और उनकी ग़ज़ल की मुलाकात , ( भाग : 2 )

जिन्होंने पहला भाग नहीं पड़ा , पहले वो पड़े ।

अक्टूबर का महीना था , इतनी ठण्ड नहीं थी लेकिन फिर भी मैंने वो हरा स्वेटर रात को ही पेटी से निकाल लिया था जिसे पेहेन कर मैं खूबसूरत लगती हूँ , ऐसा मेरी माँ कहती है , कल मेरी उनसे पहली मुलाकात है , अजीब सा डर , अजीब से ख़ुशी, कुछ समझ ना आने वाली हलचल दिल में दौड़ रही थी , रात में जागना लगभग तय था , रात भर ना सोने से मेरी आँखों को तो कुछ नहीं होगा , जो कहना है नहीं कह पायी तो , सामना नहीं कर पायी तो , ये सवाल जिनके कोई जवाब न थे मुझे और बेचैन कर रहे थे , एक खत में उन्होंने मुझे अपनी ' ग़ज़ल ' नाम दिया था , क्या मैं सच में हूँ या बस ऐसे ही कहा उन्होंने , क्या कल सब ठीक होगा मुलाकात में , ये सोचते सोचते सूरज की पहली किरण खिड़की से मेरे ऊपर आई और मैं उठ गयी, खिड़की से देखा तो सूरज की रौशनी आज कुछ ज़्यादा थी , या मुझे लग रही थी , सब अलग क्यों है आज , सब सुहाना , सब सुन्दर , जल्दी जल्दी नहा के घर के सारे काम निपटाने लगी ताकि माँ किसी काम के लिए ना रोक ले , बहुत डर लग रहा था , पहली बार घरवालो से छुप कर कोई कदम अपनी आत्मा और दिल की इज़ाज़त से आगे बड़ा रही थी , सारे काम करके सहेली का इंतज़ार करने लगी जो मुझे घर से बहार लेके जाएगी , सब कुछ त्यार था , मैं कपडे पेहेन के लाखो बार आईने में खुद को सवाँर चुकी थी , शर्मा चुकी थी , ज़ुल्फो को चेहरे पे लाने का ज़िक्र एक खत में हुआ था याद था तो मैं उसी तरह त्यार थी , 5 बज गयी अब तक सहेली नहीं आई , उसका नाम नहीं बताउंगी वरना आप सब उसे भला बुरा कहेंगे , 5-30 हो गए , उसने आज तक कभी देरी नहीं की थी , एक नज़र सहेली को ढूंढ रही थी दरवाज़े पे , एक नज़र में उनका इंतज़ार करता हुआ चेहरा उतर आया था , जिसपे भरोसा था मंज़िल तक ले जाने का उसने रस्ते में साथ छोड़ दिया , मेने अपने चेहरे पे एक आंसू की बून्द को महसूस किया , जो उनके लिए थी , मेरे लिए मैं बहुत बार रो चुकी थी , आज पहली बार किसी और के दर्द पे मुझे रोना आया , मैंने वादा किया था मैं ज़रूर आयुंगी , खत में ये भी लिखा था मुझे ख़ुशी है हम मिल रहे , 6-30 हो गए , अँधेरा सर्दियों में जल्दी हो जाता हा , अब मेरा बाहर जाना नामुमकिन था , सहेली नहीं आई , मैं घर के काम में लग गयी , पिता , भाई , माँ जिनके डर से मुझे लगा था ना जा पाऊँगी , उन्होंने मना नहीं किया , सहेली धोखा दे गयी , क्या मज़बूरी होगी उसकी की वो नहीं आई , खुद से ज़्यादा उसे याद दिलाया था की आज जाना है , फिर भी नहीं आई , भूल गयी ?, या जान कर नहीं आई ? , कोई काम आ गया ?, उसके घर पे कोई रोकता भी नहीं है , ये सब सवालो को पीछे धकेल कर एक बड़ा सवाल मेरे दिल में हर एक पल में 100 बार आ रहा था , वो क्या सोचेंगे , क्या अब मुझसे बात करेंगे , क्या मुझे अभी भी अपनी ग़ज़ल बुलाएँगे , या मुझसे रिश्ता तो नहीं तोड़ देंगे ? मैं खुद को अब आईने में नहीं देख पा रही थी , बहुत रोने के बाद भी दिल हल्का नहीं हुआ , क्या ईश्वर मेरे साथ यही सब करना चाहता था तो मुझे एक पल की भी ख़ुशी क्यों दी , मुलाकात के सपने क्यों दिखाए , क्या सोच रहे होंगे वो मैं उन्हें अब अपना चेहरा नहीं दिखा पाऊँगी , क्या एक इंसान को अपने एक जीवन में एक इन्सान एक बार अच्छे से मिलने का हक़ भी नहीं , यही दस्तूर हे जीवन का , तो मुझे नहीं रहना यहाँ ,ये सोचकर ग़ज़ल रात में 12 बजे जब सब सो रहे थे रसोई घर में गयी और.… आगे क्या हुआ जानिये अगले सत्र में।


धन्यवाद तनोज दाधीच

Tuesday, 3 November 2015

शायर भैया और उनकी ग़ज़ल की मुलाकात , ( भाग : 1 )

बहुत दिनों की " नहीं नहीं " और " कोई देख लेगा तो " के बाद रविवार को यह तय हुआ कि शायर भैया और उनकी ग़ज़ल बुधुवार के दिन सुभाष चन्द्र बोस पार्क में ठीक 5 बजे मिलेंगे। इसके बाद सोमवार और मंगलवार नामक २ सदिया शायर को गुज़ारनी थी, मदद के लिए काफी चीज़े थी जैसे तन्हाई , कलम , ख़ामोशी , राते।  बुधवार सुबह बिना किसी कुकड़ू कु  या अलार्म के शायर 5 बजे उठ गए , उसके बाद 3 रुपए ढूंढ के शैम्पू लेने छोटू को भेझा , नहाने में रोज़ से करीब दुगना वक़्त लगा ,कपड़े सबसे अच्छे पहनने के लिए कुछ ऐसे दोस्तों से बात करनी पड़ी जिनको देखते भी न थे, करनी ही पड़ी लेकिन , पहली मुलाक़ात जो थी , इससे पहले तो बस चिठिया या नज़रे ही सहारा थी। ये व्याख्या इन्ही दिनों का है जब फेसबुक पे ही सारी बाते हो जाती है फिर व्हाट्सप्प पर चित्र भझे जाते है , और मुलाकात में सीधे … , लेकिन  अपने शायर भैया और उनकी ग़ज़ल इस दौर से काफी पीछे छूट गये थे शहर में रहने के बावजूद भी , खेर  पार्क में समय अनुसार 4 बजे पहुंच कर शायर जी ने अभ्यास करना शुरू कर दिया की कैसे दिल की बात बिना डरे होठो पे आ जाये , जो इत्र लगा कर आये थे उसका असर कुछ ही मिनटों में गायब हो गया , और शायर को पसीना आने लगा, इतना डर तो दसवी बोर्ड में फ़ैल होकर माताजी से भी नहीं लगा था , समय धीरे धीरे निकल रहा था, निकल ही गया उसे कौन रोक सकता है , शायर अपने शेर के साथ गुलाब का फूल लिए तैयार था , एक नज़र ग़ज़ल को ढूंढ रही थी , दूसरी कोई देख तो नहीं रहा इस्पे नज़र रखी थी , 5 बजे शायर जी का दिल बहुत ज़ोर से धड़क रहा था , बस इसी पल के लिए जीवन जीया  था , बस यही आखरी तम्मना , 5:05 हो गये , 5:10  , 5 :15 शायर हर गली पे नज़र रखे हुआ था , एक आहट से चौंक जाता , कहीं बार कल्पना में उसे देख लिया आते हुए , लेकिन हक़ीक़त कुछ और थी , 5:30 हो गए , अब चेहरे का रंग धीरे धीरे हवाओ में उड़ रहा था , बार बार पुरानी घडी देर से चलने का झूठा दिलासा भी अब नहीं काम कर रहा था , 6 बज गए , ग़ज़ल नहीं आई , 7 ,8 ,9 रात हो गयी , एक अलग अनुभव हुआ आज , आंसू आना चाहते थे , शायर रोना चाहता था , क्यों ,कैसे, ऐसे सवाल दिमाग और दिल दोनों पे भयंकर असर कर रहे थे , घर  आते ही माँ ने पूछा कहाँ गया था , कुछ बिना बोले छत पे जाके खूब रोने के बाद अपनी आत्मा से कईं बार पूछा , आखिर क्यों नहीं आई , ऐसा क्यों किया , बेवफा भी नहीं कह सकते क्युकी कोई मज़बूरी भी हो सकती है , भाई ने रोक लिया हो , पिता ने माना कर दिया हो , ऐसा क्यों हुआ लेकिन , ग़ज़ल की कोई मज़बूरी होगी या वो आना नही चाहती थी , उसके दिल में कोई और तो नहीं , सवालो के तीर सीधे दिल पे वार कर रहे थे , आगे क्या हुआ …

जानिए अगले लेख में।

धन्यवाद

तनोज दाधीच