Friday, 6 November 2015

शायर भैया और उनकी ग़ज़ल की मुलाकात , ( भाग : 2 )

जिन्होंने पहला भाग नहीं पड़ा , पहले वो पड़े ।

अक्टूबर का महीना था , इतनी ठण्ड नहीं थी लेकिन फिर भी मैंने वो हरा स्वेटर रात को ही पेटी से निकाल लिया था जिसे पेहेन कर मैं खूबसूरत लगती हूँ , ऐसा मेरी माँ कहती है , कल मेरी उनसे पहली मुलाकात है , अजीब सा डर , अजीब से ख़ुशी, कुछ समझ ना आने वाली हलचल दिल में दौड़ रही थी , रात में जागना लगभग तय था , रात भर ना सोने से मेरी आँखों को तो कुछ नहीं होगा , जो कहना है नहीं कह पायी तो , सामना नहीं कर पायी तो , ये सवाल जिनके कोई जवाब न थे मुझे और बेचैन कर रहे थे , एक खत में उन्होंने मुझे अपनी ' ग़ज़ल ' नाम दिया था , क्या मैं सच में हूँ या बस ऐसे ही कहा उन्होंने , क्या कल सब ठीक होगा मुलाकात में , ये सोचते सोचते सूरज की पहली किरण खिड़की से मेरे ऊपर आई और मैं उठ गयी, खिड़की से देखा तो सूरज की रौशनी आज कुछ ज़्यादा थी , या मुझे लग रही थी , सब अलग क्यों है आज , सब सुहाना , सब सुन्दर , जल्दी जल्दी नहा के घर के सारे काम निपटाने लगी ताकि माँ किसी काम के लिए ना रोक ले , बहुत डर लग रहा था , पहली बार घरवालो से छुप कर कोई कदम अपनी आत्मा और दिल की इज़ाज़त से आगे बड़ा रही थी , सारे काम करके सहेली का इंतज़ार करने लगी जो मुझे घर से बहार लेके जाएगी , सब कुछ त्यार था , मैं कपडे पेहेन के लाखो बार आईने में खुद को सवाँर चुकी थी , शर्मा चुकी थी , ज़ुल्फो को चेहरे पे लाने का ज़िक्र एक खत में हुआ था याद था तो मैं उसी तरह त्यार थी , 5 बज गयी अब तक सहेली नहीं आई , उसका नाम नहीं बताउंगी वरना आप सब उसे भला बुरा कहेंगे , 5-30 हो गए , उसने आज तक कभी देरी नहीं की थी , एक नज़र सहेली को ढूंढ रही थी दरवाज़े पे , एक नज़र में उनका इंतज़ार करता हुआ चेहरा उतर आया था , जिसपे भरोसा था मंज़िल तक ले जाने का उसने रस्ते में साथ छोड़ दिया , मेने अपने चेहरे पे एक आंसू की बून्द को महसूस किया , जो उनके लिए थी , मेरे लिए मैं बहुत बार रो चुकी थी , आज पहली बार किसी और के दर्द पे मुझे रोना आया , मैंने वादा किया था मैं ज़रूर आयुंगी , खत में ये भी लिखा था मुझे ख़ुशी है हम मिल रहे , 6-30 हो गए , अँधेरा सर्दियों में जल्दी हो जाता हा , अब मेरा बाहर जाना नामुमकिन था , सहेली नहीं आई , मैं घर के काम में लग गयी , पिता , भाई , माँ जिनके डर से मुझे लगा था ना जा पाऊँगी , उन्होंने मना नहीं किया , सहेली धोखा दे गयी , क्या मज़बूरी होगी उसकी की वो नहीं आई , खुद से ज़्यादा उसे याद दिलाया था की आज जाना है , फिर भी नहीं आई , भूल गयी ?, या जान कर नहीं आई ? , कोई काम आ गया ?, उसके घर पे कोई रोकता भी नहीं है , ये सब सवालो को पीछे धकेल कर एक बड़ा सवाल मेरे दिल में हर एक पल में 100 बार आ रहा था , वो क्या सोचेंगे , क्या अब मुझसे बात करेंगे , क्या मुझे अभी भी अपनी ग़ज़ल बुलाएँगे , या मुझसे रिश्ता तो नहीं तोड़ देंगे ? मैं खुद को अब आईने में नहीं देख पा रही थी , बहुत रोने के बाद भी दिल हल्का नहीं हुआ , क्या ईश्वर मेरे साथ यही सब करना चाहता था तो मुझे एक पल की भी ख़ुशी क्यों दी , मुलाकात के सपने क्यों दिखाए , क्या सोच रहे होंगे वो मैं उन्हें अब अपना चेहरा नहीं दिखा पाऊँगी , क्या एक इंसान को अपने एक जीवन में एक इन्सान एक बार अच्छे से मिलने का हक़ भी नहीं , यही दस्तूर हे जीवन का , तो मुझे नहीं रहना यहाँ ,ये सोचकर ग़ज़ल रात में 12 बजे जब सब सो रहे थे रसोई घर में गयी और.… आगे क्या हुआ जानिये अगले सत्र में।


धन्यवाद तनोज दाधीच

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