बहुत दिनों की " नहीं नहीं " और " कोई देख लेगा तो " के बाद रविवार को यह तय हुआ कि शायर भैया और उनकी ग़ज़ल बुधुवार के दिन सुभाष चन्द्र बोस पार्क में ठीक 5 बजे मिलेंगे। इसके बाद सोमवार और मंगलवार नामक २ सदिया शायर को गुज़ारनी थी, मदद के लिए काफी चीज़े थी जैसे तन्हाई , कलम , ख़ामोशी , राते। बुधवार सुबह बिना किसी कुकड़ू कु या अलार्म के शायर 5 बजे उठ गए , उसके बाद 3 रुपए ढूंढ के शैम्पू लेने छोटू को भेझा , नहाने में रोज़ से करीब दुगना वक़्त लगा ,कपड़े सबसे अच्छे पहनने के लिए कुछ ऐसे दोस्तों से बात करनी पड़ी जिनको देखते भी न थे, करनी ही पड़ी लेकिन , पहली मुलाक़ात जो थी , इससे पहले तो बस चिठिया या नज़रे ही सहारा थी। ये व्याख्या इन्ही दिनों का है जब फेसबुक पे ही सारी बाते हो जाती है फिर व्हाट्सप्प पर चित्र भझे जाते है , और मुलाकात में सीधे … , लेकिन अपने शायर भैया और उनकी ग़ज़ल इस दौर से काफी पीछे छूट गये थे शहर में रहने के बावजूद भी , खेर पार्क में समय अनुसार 4 बजे पहुंच कर शायर जी ने अभ्यास करना शुरू कर दिया की कैसे दिल की बात बिना डरे होठो पे आ जाये , जो इत्र लगा कर आये थे उसका असर कुछ ही मिनटों में गायब हो गया , और शायर को पसीना आने लगा, इतना डर तो दसवी बोर्ड में फ़ैल होकर माताजी से भी नहीं लगा था , समय धीरे धीरे निकल रहा था, निकल ही गया उसे कौन रोक सकता है , शायर अपने शेर के साथ गुलाब का फूल लिए तैयार था , एक नज़र ग़ज़ल को ढूंढ रही थी , दूसरी कोई देख तो नहीं रहा इस्पे नज़र रखी थी , 5 बजे शायर जी का दिल बहुत ज़ोर से धड़क रहा था , बस इसी पल के लिए जीवन जीया था , बस यही आखरी तम्मना , 5:05 हो गये , 5:10 , 5 :15 शायर हर गली पे नज़र रखे हुआ था , एक आहट से चौंक जाता , कहीं बार कल्पना में उसे देख लिया आते हुए , लेकिन हक़ीक़त कुछ और थी , 5:30 हो गए , अब चेहरे का रंग धीरे धीरे हवाओ में उड़ रहा था , बार बार पुरानी घडी देर से चलने का झूठा दिलासा भी अब नहीं काम कर रहा था , 6 बज गए , ग़ज़ल नहीं आई , 7 ,8 ,9 रात हो गयी , एक अलग अनुभव हुआ आज , आंसू आना चाहते थे , शायर रोना चाहता था , क्यों ,कैसे, ऐसे सवाल दिमाग और दिल दोनों पे भयंकर असर कर रहे थे , घर आते ही माँ ने पूछा कहाँ गया था , कुछ बिना बोले छत पे जाके खूब रोने के बाद अपनी आत्मा से कईं बार पूछा , आखिर क्यों नहीं आई , ऐसा क्यों किया , बेवफा भी नहीं कह सकते क्युकी कोई मज़बूरी भी हो सकती है , भाई ने रोक लिया हो , पिता ने माना कर दिया हो , ऐसा क्यों हुआ लेकिन , ग़ज़ल की कोई मज़बूरी होगी या वो आना नही चाहती थी , उसके दिल में कोई और तो नहीं , सवालो के तीर सीधे दिल पे वार कर रहे थे , आगे क्या हुआ …
जानिए अगले लेख में।
धन्यवाद
तनोज दाधीच
जानिए अगले लेख में।
धन्यवाद
तनोज दाधीच
इतजार बेहद है, अगले लेख के लिए भाई ।
ReplyDeletejald hi hazir hoga
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