Wednesday, 18 November 2015

शायर भैया और उनकी ग़ज़ल की मुलाकात , ( भाग : 3 )

जिन्होंने पहला और दूसरा भाग नहीं पड़ा ,  पहले वो पड़े ।

ज़िन्दगी में कईं बार ऐसा होता है की कोई वस्तु या वस्तु का रंग तक किसी की याद दिलाता है , जिस चाकू से अपनी कलाई काटने का ग़ज़ल ने तय किया उसका रंग गुलाबी थी , गुलाबी रंग का ही रुमाल एक खत के साथ शायर ने ग़ज़ल को भिजवाया था , उसे शायर की याद आई , बस कलाई काटने ही वाली थी की ये विचार कहीं ब्रह्माण्ड से उड़ के ग़ज़ल के मन में आ गया की शायर पे क्या बीतेगी अगर वो इस दुनिया से चली गयी , और ग़ज़ल ने चाकू नीचे रख दिया आंसू पोछ के नींद के इंतज़ार में बिस्तर पर लेट गयी ,
'आगे की कहानी ग़ज़ल की सहेली की दृष्टि से जो उसे आज शायर भैया से मिलवाने ले जा रही थी '




बहुत दिनों बाद मेरी सहेली को ये मौका और हिम्मत मिली है की वो अपने प्रेमी से आज मिले , मैं बहुत खुश हूँ , आज उसे लेके पार्क जाना है , मैं जल्दी ही काम करके ग़ज़ल के घर जैसे ही पहुंची , तो देखती हूँ घर के बाहर ग़ज़ल के पिता और भाई हाथ में एक कागज़ लिए बहुत गुस्से में है , मैंने इस दृश्य को ऐसे ही नहीं जाने दिया और छुपकर उनकी बाते सुनने की कोशिश की और जो सुना वो बहुत ही दिल दुखाने वाला था ,  उनके हाथ में कुछ और नही बल्कि शायर भैया का खत था , जिसमे आज की मुलाकात की बात थी , ग़ज़ल के पिता बहुत गुस्से में थे , वो ग़ज़ल से मिलके सब पूछना चाह रहे थे , इतना गुस्से में मैंने उन्हें कभी नहीं देखा था , लेकिन इन सबसे ज़्यादा गुस्सा ग़ज़ल के भाई को शायर भैया पे आ रहा था , उसने पिताजी से कहा की आज ग़ज़ल को जाने देते है उसका पीछा करेंगे तभी शायर भैया तक पहुंच पाएंगे , वार्ना उसे ढूंढ़ना मुश्किल होगा , पिताजी अपने गुस्से पे काबू रख कर बेटे की बात से सहमत हो गए और दोनों घर के बाहर छुप कर ग़ज़ल के बाहर जाने की राह देखने लगे , मुझे यकीन हो गया था की आज अगर ये लोग शायर भैया तक पहुंच गए तो उन्हें कहीं मार ही ना डाले , इतने गुस्से में थे दोनों , एक तरफ मेरी सहेली मेरा इंतज़ार कर रही थी, उसके जीवन के सबसे अनमोल पल को जीने के लिए , एक तरफ शायर भैया पार्क में इंतज़ार कर रहे थे अपनी ग़ज़ल को करीब से देख के शेर सुनाने का और एक तरफ मैं थी जो ग़ज़ल के घर के बाहर पहुँचने के बावजूद भी अंदर जाने में असमर्थ थी , ये ग़ज़ल के साथ ही क्यों हुआ , ये खत इन लोगो को कैसे मिला , सब कुछ कैसे बदल गया , इन सारे सवालो के जवाब ढूढ़ने का वक़्त नही था , वक़्त था तो समझदारी से काम लेने का , मैंने अपनी सहेली के सबसे अनमोल दिन के सबसे अनमोल पल की कुर्बानी दी और उसे और शायर भैया को आज के लिए बचा लिया और घर लौट आई ,
अगले ही दिन खबर आई की ग़ज़ल ने मुझे बुलाया है , मैं उसके घर गयी डर डर के , उसे अपना चेहरा कैसे दिखाउंगी , पर मुझे यकीन था वो मेरी बात समझेगी , मैंने उसे सब बताया की कैसे मैं बाहर तक आने के बाद भी अंदर नहीं आ पायी लेकिन उसने जो बताया वो मेरे लिए बहुत आशार्यजनक था , उसने कहा की घरवालो ने उसे बहुत खरी खोटी सुनाई , पिता  ने हाथ तक उठाया लेकिन माँ ने बचा लिया , 2 दिन में उसकी सगाई है और 1 हफ्ते में उसकी शादी ,
पिताजी के किसी दोस्त का बेटा है , अच्छी बैंक की नौकरी है और शहर से बाहर रहता है , 1 हफ्ते में ग़ज़ल शायर भैया के दिल से निकल कर शहर के बाहर किसी और के साथ रहेगी इस विचार ने मेरी आँखों में आंसू भर दिए , ग़ज़ल ने मुझे एक खत दिया और कहा आज तक तुमने हर खत पहुँचने के लिए मुझसे 1 ग़ज़ल सुनी है मेरे शायर की , आज में तुम्हें उनका एक गीत सुना दूंगी लेकिन इस आखरी खत को उन तक पहुँचा दो , मैं मौन होके सब सुन रही थी , ग़ज़ल ने रोते रोते गीत सुनाया जिसमे शायर भैया ने उनके और ग़ज़ल के विवाह के बाद के दिनों का वर्णन किया था , हम दोनों आंसुओं की बारिश में नहा  चुके थे , में उनकी प्रेम कहानी की एक मात्र साक्षी थी कैसे पहली नज़र से अधूरी मुलाकात तक का ये सफर बीता , जब मेरे कदम ग़ज़ल के घर से बाहर की तरफ बड़ रहे थे मैंने अपने आप से एक वादा किया की भले शायर भैया और उनकी ग़ज़ल की शादी ना हो , भले ग़ज़ल शहर से चली जाए , लेकिन इस प्रेम कहानी को में ऐसे ही व्यर्थ नहीं जाने दूंगी , मैं इन दोनों को एक बार मिलवाऊंगी ज़रूर , भले कैसे भी हो ,
ग़ज़ल की सहेली ग़ज़ल का आखरी खत लेके शायर भैया से मिलने पहुँची ,
आगे क्या हुआ जानिये अगले सत्र में ................

इस लेख को देरी से प्रकाशित करने के लिए क्षमा चाहता हूँ ,
- तनोज दाधीच 

Friday, 13 November 2015

हम खो जाये, हम खो जाए .......

ज़ुल्फ़ें हैं  या काली घटा ,
कौन बतलाये ,कौन समझाए , 
उड़के  ये जब हमपे आये ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
भौहें है या आँखों का ताज , 
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
इतरा के जब ये बलखाये ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
ऑंखें है या विशाल महासागर ,
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
डूबने के लिए जब इनमे जाए ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
रूखसार (गाल) है या कपास ( रुई ) कोई ,
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
छूते ही बस ये हो जाए ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
होठ है या है दो गुलाबी पंख ,
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
देख के इन्हें दिल बेहक जाये , 
हम खो जाये, हम खो जाए ,
हाथ इतने गोरे की क्या बताये , 
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
दूध का रंग फीका पड़ जाए ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
पैर इतने अनमोल है आपके , 
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
उनके नीचे मखमल हम लगाये ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
बदन है या ईश्वर का चमत्कार कोई ,
कौन बतलाये ,कौन समझाए ,
देख के ख़ूबसूरती आपकी ,
हम खो जाये, हम खो जाए ,
सोचो आपको और ग़ज़ल हो जाये 
कुछ पल में ये कमाल हो जाए ,
आपसे लेकिन ये राज़ छुपाये  ,
'तनोज' खो जाये , 'तनोज' खो जाये। 

- तनोज दाधीच 

Friday, 6 November 2015

शायर भैया और उनकी ग़ज़ल की मुलाकात , ( भाग : 2 )

जिन्होंने पहला भाग नहीं पड़ा , पहले वो पड़े ।

अक्टूबर का महीना था , इतनी ठण्ड नहीं थी लेकिन फिर भी मैंने वो हरा स्वेटर रात को ही पेटी से निकाल लिया था जिसे पेहेन कर मैं खूबसूरत लगती हूँ , ऐसा मेरी माँ कहती है , कल मेरी उनसे पहली मुलाकात है , अजीब सा डर , अजीब से ख़ुशी, कुछ समझ ना आने वाली हलचल दिल में दौड़ रही थी , रात में जागना लगभग तय था , रात भर ना सोने से मेरी आँखों को तो कुछ नहीं होगा , जो कहना है नहीं कह पायी तो , सामना नहीं कर पायी तो , ये सवाल जिनके कोई जवाब न थे मुझे और बेचैन कर रहे थे , एक खत में उन्होंने मुझे अपनी ' ग़ज़ल ' नाम दिया था , क्या मैं सच में हूँ या बस ऐसे ही कहा उन्होंने , क्या कल सब ठीक होगा मुलाकात में , ये सोचते सोचते सूरज की पहली किरण खिड़की से मेरे ऊपर आई और मैं उठ गयी, खिड़की से देखा तो सूरज की रौशनी आज कुछ ज़्यादा थी , या मुझे लग रही थी , सब अलग क्यों है आज , सब सुहाना , सब सुन्दर , जल्दी जल्दी नहा के घर के सारे काम निपटाने लगी ताकि माँ किसी काम के लिए ना रोक ले , बहुत डर लग रहा था , पहली बार घरवालो से छुप कर कोई कदम अपनी आत्मा और दिल की इज़ाज़त से आगे बड़ा रही थी , सारे काम करके सहेली का इंतज़ार करने लगी जो मुझे घर से बहार लेके जाएगी , सब कुछ त्यार था , मैं कपडे पेहेन के लाखो बार आईने में खुद को सवाँर चुकी थी , शर्मा चुकी थी , ज़ुल्फो को चेहरे पे लाने का ज़िक्र एक खत में हुआ था याद था तो मैं उसी तरह त्यार थी , 5 बज गयी अब तक सहेली नहीं आई , उसका नाम नहीं बताउंगी वरना आप सब उसे भला बुरा कहेंगे , 5-30 हो गए , उसने आज तक कभी देरी नहीं की थी , एक नज़र सहेली को ढूंढ रही थी दरवाज़े पे , एक नज़र में उनका इंतज़ार करता हुआ चेहरा उतर आया था , जिसपे भरोसा था मंज़िल तक ले जाने का उसने रस्ते में साथ छोड़ दिया , मेने अपने चेहरे पे एक आंसू की बून्द को महसूस किया , जो उनके लिए थी , मेरे लिए मैं बहुत बार रो चुकी थी , आज पहली बार किसी और के दर्द पे मुझे रोना आया , मैंने वादा किया था मैं ज़रूर आयुंगी , खत में ये भी लिखा था मुझे ख़ुशी है हम मिल रहे , 6-30 हो गए , अँधेरा सर्दियों में जल्दी हो जाता हा , अब मेरा बाहर जाना नामुमकिन था , सहेली नहीं आई , मैं घर के काम में लग गयी , पिता , भाई , माँ जिनके डर से मुझे लगा था ना जा पाऊँगी , उन्होंने मना नहीं किया , सहेली धोखा दे गयी , क्या मज़बूरी होगी उसकी की वो नहीं आई , खुद से ज़्यादा उसे याद दिलाया था की आज जाना है , फिर भी नहीं आई , भूल गयी ?, या जान कर नहीं आई ? , कोई काम आ गया ?, उसके घर पे कोई रोकता भी नहीं है , ये सब सवालो को पीछे धकेल कर एक बड़ा सवाल मेरे दिल में हर एक पल में 100 बार आ रहा था , वो क्या सोचेंगे , क्या अब मुझसे बात करेंगे , क्या मुझे अभी भी अपनी ग़ज़ल बुलाएँगे , या मुझसे रिश्ता तो नहीं तोड़ देंगे ? मैं खुद को अब आईने में नहीं देख पा रही थी , बहुत रोने के बाद भी दिल हल्का नहीं हुआ , क्या ईश्वर मेरे साथ यही सब करना चाहता था तो मुझे एक पल की भी ख़ुशी क्यों दी , मुलाकात के सपने क्यों दिखाए , क्या सोच रहे होंगे वो मैं उन्हें अब अपना चेहरा नहीं दिखा पाऊँगी , क्या एक इंसान को अपने एक जीवन में एक इन्सान एक बार अच्छे से मिलने का हक़ भी नहीं , यही दस्तूर हे जीवन का , तो मुझे नहीं रहना यहाँ ,ये सोचकर ग़ज़ल रात में 12 बजे जब सब सो रहे थे रसोई घर में गयी और.… आगे क्या हुआ जानिये अगले सत्र में।


धन्यवाद तनोज दाधीच

Tuesday, 3 November 2015

शायर भैया और उनकी ग़ज़ल की मुलाकात , ( भाग : 1 )

बहुत दिनों की " नहीं नहीं " और " कोई देख लेगा तो " के बाद रविवार को यह तय हुआ कि शायर भैया और उनकी ग़ज़ल बुधुवार के दिन सुभाष चन्द्र बोस पार्क में ठीक 5 बजे मिलेंगे। इसके बाद सोमवार और मंगलवार नामक २ सदिया शायर को गुज़ारनी थी, मदद के लिए काफी चीज़े थी जैसे तन्हाई , कलम , ख़ामोशी , राते।  बुधवार सुबह बिना किसी कुकड़ू कु  या अलार्म के शायर 5 बजे उठ गए , उसके बाद 3 रुपए ढूंढ के शैम्पू लेने छोटू को भेझा , नहाने में रोज़ से करीब दुगना वक़्त लगा ,कपड़े सबसे अच्छे पहनने के लिए कुछ ऐसे दोस्तों से बात करनी पड़ी जिनको देखते भी न थे, करनी ही पड़ी लेकिन , पहली मुलाक़ात जो थी , इससे पहले तो बस चिठिया या नज़रे ही सहारा थी। ये व्याख्या इन्ही दिनों का है जब फेसबुक पे ही सारी बाते हो जाती है फिर व्हाट्सप्प पर चित्र भझे जाते है , और मुलाकात में सीधे … , लेकिन  अपने शायर भैया और उनकी ग़ज़ल इस दौर से काफी पीछे छूट गये थे शहर में रहने के बावजूद भी , खेर  पार्क में समय अनुसार 4 बजे पहुंच कर शायर जी ने अभ्यास करना शुरू कर दिया की कैसे दिल की बात बिना डरे होठो पे आ जाये , जो इत्र लगा कर आये थे उसका असर कुछ ही मिनटों में गायब हो गया , और शायर को पसीना आने लगा, इतना डर तो दसवी बोर्ड में फ़ैल होकर माताजी से भी नहीं लगा था , समय धीरे धीरे निकल रहा था, निकल ही गया उसे कौन रोक सकता है , शायर अपने शेर के साथ गुलाब का फूल लिए तैयार था , एक नज़र ग़ज़ल को ढूंढ रही थी , दूसरी कोई देख तो नहीं रहा इस्पे नज़र रखी थी , 5 बजे शायर जी का दिल बहुत ज़ोर से धड़क रहा था , बस इसी पल के लिए जीवन जीया  था , बस यही आखरी तम्मना , 5:05 हो गये , 5:10  , 5 :15 शायर हर गली पे नज़र रखे हुआ था , एक आहट से चौंक जाता , कहीं बार कल्पना में उसे देख लिया आते हुए , लेकिन हक़ीक़त कुछ और थी , 5:30 हो गए , अब चेहरे का रंग धीरे धीरे हवाओ में उड़ रहा था , बार बार पुरानी घडी देर से चलने का झूठा दिलासा भी अब नहीं काम कर रहा था , 6 बज गए , ग़ज़ल नहीं आई , 7 ,8 ,9 रात हो गयी , एक अलग अनुभव हुआ आज , आंसू आना चाहते थे , शायर रोना चाहता था , क्यों ,कैसे, ऐसे सवाल दिमाग और दिल दोनों पे भयंकर असर कर रहे थे , घर  आते ही माँ ने पूछा कहाँ गया था , कुछ बिना बोले छत पे जाके खूब रोने के बाद अपनी आत्मा से कईं बार पूछा , आखिर क्यों नहीं आई , ऐसा क्यों किया , बेवफा भी नहीं कह सकते क्युकी कोई मज़बूरी भी हो सकती है , भाई ने रोक लिया हो , पिता ने माना कर दिया हो , ऐसा क्यों हुआ लेकिन , ग़ज़ल की कोई मज़बूरी होगी या वो आना नही चाहती थी , उसके दिल में कोई और तो नहीं , सवालो के तीर सीधे दिल पे वार कर रहे थे , आगे क्या हुआ …

जानिए अगले लेख में।

धन्यवाद

तनोज दाधीच

Monday, 26 October 2015

पहला प्यार

पहला प्यार जो होता है उससे ज़्यादा सरल , मासूम , भोला कुछ नही होता,
आप भले उसके बाद सच्चे प्रेम में पड़ जाए , और सच्चे प्रेम से विवाह भी कर ले लेकिन पहला प्यार आपको आजीवन याद रहेगा ,
उसके साथ बीती हुई हर घटना , हर पल को आप भूलना चाहे तो भी नामुमकीन है,

उसके पीछे का कारण ये हे की अधिकतम तौर पे पहला प्यार 10 - 18  वर्ष की उम्र में होता है,
और ये वो उम्र होती है जब इंसान सबसे ज्यादा भोला होता है ,
उसे सही गलत की समझ नहीं होती इसलिए कोई एक चेहरा
जब उसे पसंद आ जाता है तो हर चेहरे में उस चेहरे की छवि ही नज़र आती है

पाठशाला में पड़ते हुए हो , किसी मामा चाचा की शादी में हो , या मोहल्ले के किसी चेहरे से,
ये पहला प्यार आपको जीवन जीने का एक अलग कारण दे देता है ,कुछ बच्चे तो शादी तक की सोच लेते है
यही इसका रस भी है , ना किसी की चिंता ना किसी का डर , बेख़ौफ़ मोहब्बत ,

तब इंसान प्यार सिर्फ आँखों से करता है, शरीर को छूने की आवशयकता  ही नहीं पड़ती , पड़ती भी है तो हाथो में हाथ ही काफी होता है ,

पुराने ज़माने की बात नहीं है , हर सदी में जब किसी को पहला प्यार होगा तो उसे वैसा ही महसूस होगा जैसे कुछ सालो पहले किसी और हो हुआ होगा ,

आज कल की जो नयी पीढ़ी है वो प्यार के मायने भूल गयी है , शरीर की काया से शुरू होने वाला प्रेम वही खत्म हो जाता है,
वहीँ पहला प्यार आत्मा से शुरू होता है जो घरवालो की डाट पे खत्म हो जाता है, लेकिन हमेशा के लिए आत्मा में बस जाता है,

उस प्यार में भोलापन होता है , साथ रहने की इच्छा होती है , बस उसे देखते रहने का मन होता है , हाथ में हाथ डाल कर चलने का मन होता है , पूरी ज़िन्दगी के बारे में संग संग सोचने का मन होता है ,
सबकी नज़रो से बच कर नज़र मिलाने का मन होता है ,

वो लोग बहुत खुशकिस्मत होते है जिनका विवाह उनके पहले प्यार से होता है ,



एक शेर से अंत करना चाहूँगा ,


इसके आगे 'तनोज' हर शख्स झुक जाता है ,
पहला प्यार कहाँ भूलने से , भूला जाता है.…

- तनोज दाधीच

Sunday, 18 October 2015

कवि , शायर , लेखक

जिसे आम आदमी पानी कहता है , उसे कवि जल कहेगा , या आँसू , या भावनाओं की धारा , या
प्रकर्ति की सुंदरता , या पेड़ पोधो का भोजन या जो उसका मन चाहे ,

कवि के विचार आम आदमी से भिन्न होते है , शायर या तो मोहब्बत होने से बनता है या मोहब्बत टूटने
से या दोनों से ऐसा आज के संसार में लोग मानते है लेकिन अगर आपके मन में हर इंसान , पूरी प्रकर्ति
और इस संसार में मौजूद हर चीज़ को वास्तविक रूप से देखने की क्षमता नहीं है , तो आप शायर या लेखक नही
बन सकते ,

एक उस्ताद शायर को मैंने एक दिन सुधार के लिए अपना एक शेर सुनाया की

भले एक रात की रौशनी मिटा दे वो लेकिन ,
कोई चिराग कभी सूरज हो नहीं सकता ,

इसे सुनते ही वो मौन हो गए, कुछ बोले ही नहीं , क़रीबन 20 मिनट बाद मैं उनके पैर छू कर और इस ख़ामोशी को जी
कर अपने घर लौट गया , रास्ते भर यही सोचा की क्या गलती होगी शेर में जो गुरूजी ने कुछ नहीं कहा ,
3 दिन बाद वो मुझसे बाज़ार में चाय की दुकान पर टकरा गए , मैं नज़र छुपा के भागने लगा उन्होंने रोका और कहा
वो चिराग की जगह दिया कर लो बाकी शेर अच्छा है , पहले तो समझ नहीं आया फिर ध्यान लगाया तो याद आया शेर में
सुधार कर रहे है,
मैंने भी वही पूछा जो आप लोग सोच रहे इतनी सी ही बात थी तो उस दिन मौन क्यों हो गए , उसी दिन बता देते ,

उन्होंने जो जवाब दिया वो सभी कवियों , शायरों की बुनियाद है ,
वो बोले तुम्हारे शेर से मिलता जुलता एक शेर मैंने 15 साल पहले कहा था , अब मुझे याद नहीं आ रहा था
तो मैं मौन होके उसे याद करने लगा

जब आपकी रचना इस दुनिया , हर व्यक्ति और पूरी प्रकृति से महत्वपूर्ण हो जाये तो समझ लीजिये कवि होने के पहली
परिभाषा आपने निभा दी ,

लेकिन ये तो तब जब कवि और उसकी कविता अलग अलग होती है , जब कवि और उसकी कविता एक हो जाती है तो
इस संसार को दिनकर , नागार्जुन , निराला , ग़ालिब , मीर जैसे हीरे मिलते है

-  तनोज दाधीच

Monday, 12 October 2015

मन

जब मेरे एक मित्र ने इस विषय पर लिखने की राय दी उस समय जिस गीत के स्वर मेरे कानो में गूंज रहे थे
वो था छूकर मेरे मन को , किया तूने क्या इशारा ,

मेरा ऐसा मानना है की मन को अगर कोई इंसान या वस्तु छू ले तो उसे प्राप्त करने के लिए मन आतुर हो जाता है ,

बचपन में एक मुहावरा मेरी माँ से मैंने कहीं बार सुना है ' सुनो सब की, करो मन की ' ,
तो फिर सुनो क्यों ?
ये सवाल आप से पूछ रहा हूँ माँ से नहीं पूछा वरना आप जानते हो क्या होता ,

लोग कहते है मन बहुत चंचल होता है , मैं कहता हूँ मन  दिमाग की तरह चालाक होता है ,
इंसान को लगता है वो मन को चला रहा है , वास्तविकता में मन उसे चला रहा होता है ,

मन के बारे में लिखना भी मन के विचार की ही उपज है ,
मन में एक विचार से लेकर के पूरा ब्रह्माण्ड समाया है ,

पता नहीं मैं इस विषय को निभा पाया या नहीं लेकिन मन में जो आया वह लिखना ज़रूरी है ,
दिमाग लगा के मन के बारे में लिखा तो क्या लिखा ,

मोहब्बत , अहंकार , लड़ाई , ईर्षा  , सब मन के किसी कोने में छिपा है ,
जिस मन का कोई आकार , कोई पता नहीं , उस में इतनी चीज़े है जितनी दिमाग में नहीं ,

जब किसी व्यक्ति या निर्जीव वस्तु से हम जीवन में मिलते है तो उसके बारे में सारी बाते
मन में चली जाती है , दिमाग आगे का जीवन जीने के लिए भूल जाता है लेकिन मन सब याद रखता है ,

इसलिए कभी कभी किसी का चेहरा देख के लगता है इसे कहीं देखा है , मन उसे अनायास खोजने लगता है ,
जब मन के किसी कोने में मिल जाता है वो शख्स तो दिमाग को सन्देश भेज देता है की इससे यहाँ मिले थे ,
और हमें पता चल जाता है

जब मन मोहब्बत करता है तो मन ही उसे समझ सकता है ,

हिंदी के एक बड़े कवि है कुमार विश्वास जी उनके एक बहुत पुराने गीत की एक पंक्ति के साथ
अंत करना चाहूंगा वो कहते है

' मन तुम्हारा

 हो गया तो,
 हो गया  '

- तनोज दाधीच

विषय के लिए तनुज का खास शुक्रिया ......

Friday, 9 October 2015

मौत

मौत एक ऐसा सच है जिसे कोई नहीं ठुकरा सकता ,
विज्ञानं कितनी ही तरक्की कर ले , ज्योतिष कितना ही बड़ा बन जाये , मौत जब आनी है आएगी ही ,
उसे कोई नहीं रोक सकता
जिससे आपने कल ही बात की हो और आज वो ना रहे तो आपको बहुत गहरी चोट लगेगी ,
हर इंसान की मौत सिर्फ मौत नहीं बल्कि ज़िंदा लोगो के लिए एक तमाचा है , इशारे नहीं समझता इंसान इसलिए तमाचा है ,
की कर लो जो करने आये हो , जी लो , किसी की मदद कर दो , किसी ने धोका दिया तो उसको माफ़ कर दो, किसी के साथ गलत किया तो उससे माफ़ी मांग लो , किसी से कुछ कहना है तो कह दो , मौत किसी भी वक़्त आएगी और एक पल भी और नहीं देगी ,
आप अपने माता पिता , भाई बेहेन , पति पत्नी दोस्त से आखरी अलविदा भी नहीं कह सकेंगे ,
किसी 2 साल के बच्चे की ,22 साल के जवान की , या 80 साल के बूढ़े की मौत अलग अलग नहीं ,मौत तो एक जैसी है ,
दुःख करना , रोना धोना , याद करना जो मर गया उसको सब गलत है ,
ब्रह्माण्ड का सिर्फ एक तमाचा है की जिस अर्थी पर वो लेटा है कल तुम होगे , या आज होगे , या अभी होगे ,
एक दिन सबको मारना है , वो दिन आज भी हो सकता है ,
कैसे इंसान पैसा , जाती , समाज , नाम , शौहरत , कमाने में इतना मशगूल हो सकता है की वो ये ना जाने की मौत हर वक़्त उसके करीब
आ रही है , दिल दुखता है ये सब लिखने में लेकिन जब कोई पहचान वाला मौत का शिकार बने तो सारा का सारा अहंकार मिट्टी में मिल जाता है
और मन करता है सच लिखने का ,
दोस्तों में ,आप, हम सब एक रोज़ मरने ही वाले है , वो दिन कभी भी आ सकता है , आज भी , अभी इस पल भी ,
कुछ तो ऐसा करे जिससे हमारी आत्मा को सुकून मिले , क्यों किसी से लड़ना, क्यों अहंकार , क्यों आखिर क्यों सब यही रह जायेगा
मोक्ष की प्राप्ति मरने से नहीं होती , एक शरीर से निकल कर दूसरे में जाना है ,
ये इंसान बना कर ईश्वर ने आप पे कृपा करी है इस जन्म का पूरा उपयोग करे अपनी मोक्ष तक की यात्रा में आगे बढ़ने के लिए ,
खुद को जाने , खुद को पहचाने , ईश्वर को आप अपने आप जान जाएंगे ,
मौत और जन्म हमारे बस में नहीं , लेकिन उसके बीच का जो समय मिला है वो हमारे बस में है , उसमे कुछ सार्थक , कुछ धार्मिक , कुछ आध्यात्मिक करे तो हम खुद की आत्मा को परमात्मा के एक कदम और करीब ले जाने में सफल होंगे,
हर पल मौत आपकी तरफ दौड़ रही है और मज़े की बात ये है की आप भी उसकी तरफ दौड़ रहे हो
किसी भी वक़्त आपकी आत्मा आपके शरीर को छोड़ सकती है ,
कोई भरोसा नहीं ज़िन्दगी का ...........


- तनोज दाधीच

Wednesday, 30 September 2015

वो पूछते है मुझे कैसी लड़की चाहिए

वो पूछते है मुझे कैसी लड़की चाहिए 

सूरज के समान तेज़ हो , चाँद जैसी शीतलता ,
हर वक़्त जिसका चेहरा हो तारो जैसा चमकता,
चन्दन की खुशबू समान बदन जिसका महकता,
देख जिसे हर आदमी महफ़िल में बहकता ,

वो पूछते है मुझे कैसी लड़की चाहिए 

उसका व्यहवार , बोल चाल , ठीक ठाक होना चाहिए ,
सगे समन्धी , घर बार , सबको उसपे नाज़ होना चाहिए ,
संस्कारों में सीता हो , समर्पण में राधा हो ,
गीत गाये तो कंठ में मीरा गान होना चाहिए ,

वो पूछते है मुझे कैसी लड़की चाहिए 

आँखे ऐसी हो जैसे उनमे ईश्वर समाया हो ,
होठ ऐसे जैसे कोई गुलाब खिल आया हो, 
हर वक़्त जिसके होने से रोशन हो समां ,
सादगी से जिसने बच्चो को पढ़ाया हो ,

वो पूछते है मुझे कैसी लड़की चाहिए 

अपनी मुस्कराहट से जिसने हर दर्द मिटाया हो ,
मोहब्बत का असली मतलब जिसने समझाया हो,
भले ना करती हो एक भी काम घर में ,
लेकिन मैं जाऊ मिलने तो खाना उसने बनाया हो,

वो पूछते है मुझे कैसी लड़की चाहिए 

खा गए ना तुम भी धोखा जैसे सब खाते है ,
अब तक कविता कही , अब आत्मा से मिलाते है ,
ये सब जो कहा वो झूठ था, सच अब बताते है,
आखिर कैसी लड़की हम जीवन में चाहते है ,

वो पूछते है मुझे कैसी लड़की चाहिए 

जब दुनिया मेरे खिलाफ हो ,हाथो में उसका हाथ हो ,
जिसकी ख़ामोशी में भी कोई ना कोई बात हो ,
नहीं चाहिए सूरज, चाँद, सितारे, मुझे,
जब भीड़ में अकेला हो जाऊ , बस वो मेरे साथ हो ,

सरलता जिसका गहना हो ,
कंगन जिसने पहना हो ,
जन्नत लगे , कश्मीर लगे ,
जब भी उसके साथ रहना हो ,

कहे वो मुझसे, किस बात की चिंता है तुम्हें ,
कोई इस संसार में जुदा नहीं करेगा हमें ,
बस एक पल के लिए भी जब आँखों से ओझल जो जाये ,
मेरा जीना उस पल दुश्वार हो जाये ,


माँ की सेवा करे , घर का काम करे ,
ऐसा प्यार करे जैसा सीता से राम करे ,
ला सकते हो ऐसी कन्या क्या तुम दोस्त ,
किसी का दिल ना दुखाये, सबका सम्मान करे ,

जानता हूँ मुश्किल है ,ऐसी लड़की ढूँढना ,
जैसे हो दिया लेके , खोया सपना ढूँढना,
पर दिल कहता है रोज़, एक दिन वो खुद आएगी ,
जिस दिन बंद करदोगे ,'तनोज' तुम ढूँढना ,

तो ऐसी लड़की चाहिए मुझे 


- तनोज दाधीच 

Monday, 28 September 2015

अकेलेपन का अध्भुत आनंद

अकेलेपन का अध्भुत आनंद 


आईने में पचास बार जाके बाल बनाना हो या संगीत को सुन के उसके साथ गाना , मौन होकर कुछ ना बोलना हो या 
दूर दूर तक की आवाज़ को बहुत आसानी से सुन लेना ,अकेलेपन का जो असीम अनुभव है वो कभी भी भीड़ में या लोगो के 
बीच रहकर नहीं आ सकता ,
एकांत में जब आप भेठेंगे तो आपका ध्यान उन चीज़ो पे जायेगा जिन्हें आप दिनचर्या की वजह से नज़रअंदाज़ कर देते है ,
जैसे पार्क में खेलते छोटे बच्चो की मुस्कुराहट 
बूढ़े जोड़े को साथ में देख कर उनके सुकून को आप खुद जी पाएंगे ,
पेड़ , पोधे ,परिंदे ,सूरज , चाँद , सितारे , हवाए , प्रकर्ति से खूबसूरत इस दुनिया में कुछ नहीं और आप पाएंगे की जो आपके सामने था उसपर 
ही ध्यान नहीं दिया और जीवन हाथ से फिसल गया ,

कवितायेँ हो या लेख कुछ भी पड़ने के लिए आपको एक एकांत की ज़रूरत है वरना लेखक ने जिस ऊर्जा और कलेजा लगा के लिखा है उस तक
आप नहीं पहुँच पाएंगे ,

ज़िन्दगी में कईं बार ऐसा मौका आता है जब आपको दो में से एक रास्ता चुनना होता है , तब आप भले किसी बड़े से बड़े 
व्यक्ति से राय ले लें , लेकिन जवाब आपके दिल में पहले से मौजूद होता हे की आपको कौनसा रास्ता चुनना है , आपने कभी ध्यान कैसे नहीं 
दिया की वो जवाब कैसे आया , कहाँ से आया , अंदर से ? तो फिर सारे जवाब अंदर ही होंगे , बस कुछ पल एकांत में बस कुछ पल और आप उस शख्स से जो आप ही है मिल लेंगे जो आपके अंदर बरसो से मौजूद है ,

इश्क़ में बहुत बार आप अकेले हो सकते है , कभी कभी तो अपने प्रियतम के साथ भी , लेकिन मुद्दा ये हे की क्या आपका ध्यान उस अकेलेपन पे है ?
हम में से हज़ारो लोग हर दिन कुछ पल के लिए अकेले होते है लेकिन हम खुद को व्यस्त करने का सोचते है, उस समय अगर हम उस समय को जी ले 
भले पांच मिनट आप पाएंगे तेईस गंटे पचपन मिनट में जो ना हुआ , वो उस पांच मिनट में घट जायेगा ,

आध्यात्मिक हो या भौतिकवाद हर दिशा में अकेलापन वो मदद करता है जो ईश्वर करता है ,
आप बस एक बार अकेले हो कर देख लें , फिर आप वो महसूस करेंगे जो आप बार बार करना चाहेंगे , क्युकी तब आप 
उससे मिल पाएंगे जो हर पल आपके साथ है लेकिन आपका ध्यान नहीं उसपे , आपकी आत्मा , आपकी चेतना , आपका ईश्वर ।

- तनोज दाधीच 

Saturday, 26 September 2015

उसका फ़ोन आया.......

रोज़ की तरह सुबह उठ के उसके ख्याल को नज़रअंदाज़ कर दिया , और अपने काम में लग गया , कुछ नया नहीं , सब रोज़ जैसा लेकिन ईश्वर ने कुछ और सोच के रखा था , 
मैं रोज़ सुबह ठीक 9 बजे नहाने चला जाता हूँ लेकिन आज रविवार था तो में भेठ के ग़ज़लें लिखने लगा और फ़ोन में उसकी तस्वीर खोल ली ,
बस फिर क्या था लफ्ज़ अपने आप आने लगे , शेर अपने आप बनने लगे , इतने में फ़ोन की घंटी बजी , उसकी तस्वीर बरक़रार थी , लेकिन घंटी बज रही थी,

कुछ समझ नहीं आ रहा था , ये फ़ोन खराब हो गया है , सुबह खुली आँखों से सपने दिखा रहा है इससे अच्छा नहा लेता , 

गुस्से में कलम फेंकी और नहाने जाने लगा , लेकिन मोबाइल बजने का स्वर मेरे कानो में निरंतर खुदा की आवाज़ की तरह पड़ रहा था ,
मैंने अपनी सिमित बुद्धि पे ज़ोर लगाया और ध्यान से देखा तो सच में उसका फ़ोन था ,

इस पल को मैं बयान इसलिए नहीं कर सकता क्युकी शब्दों में वो बयान हो भी नहीं सकता , मेरी आँखों में आंसू थे जिसे कुछ लोग पानी कहते है , हाथ कांप रहे थे , और फ़ोन तक जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी ,

जैसे ही मैंने पलके झपकायी सीधे कुछ सालो पहले का वो पल मेरी आँखों के सामने आ गया जब उसने कहा था , आज के बाद न मिलेंगे , ना बात करेंगे , मेरी कसम है कोशिश मत करना मुझ से संपर्क करने की ,
ये कसम भी अजीब होती है  खाते सब है , मरता कोई नहीं 
खेर हमेशा की तरह मैंने बात मान ली थी और अपनी दुनिया से दूर होकर खुद की एक दुनिया बना ली थी ,
शायरी , ग़ज़लें , लेख , कुछ श्रोता ,तनहाई और मेरा अकेलापन 
और सपनो में जीने लगा था , 
लेकिन आज सपना नहीं था , टूट गया था, में जाग गया था , ये वासत्विकता थी ,

जैसे तैसे शरीर और आत्मा की पूरी शक्ति लगा कर मैंने फ़ोन का हरा बटन दबाया ,

उस तरफ से कुछ आवाज़ नहीं आई , लेकिन महसूस कर लिया मैंने , अनुभव में जो था ,
मैंने कहा - हे हे हेलो 
- हेलो कैसे हो ?
- मैं ठीक तो सालो से नहीं था , लेकिन ठीक ही कह दिया , ,मैं ठीक हूँ 
और तुम 
-मैं भी ठीक हूँ , तुम्हारी शायरी कैसी चल रही है , अब भी वैसा है टुटा फूटा लिखते हो या कुछ सुधार हुआ ?
- ईश्वर के मन में ना जाने क्या सूझी मेरे होठो से ये निकल गया तुम्हारे जाने से मेरी शायरी अच्छी हो गयी है ,
लम्बी शांति कोई जवाब नहीं ,
- मैंने कहा , आज कैसे इस शायर की याद आ गयी ,
सालो बाद फ़ोन पर दबी आवाज़ और कपकपाते होठो से ये सुनके की ' मैंने गलती करदी ' लगा की शायद सालो अकेले रहने के बाद 
अब वो पल आ गया जिसके लिए सालो तक किसी से दिल लगाने का सोचा भी नहीं , इतने में ही पीछे से आवाज़ आई बहु मंगलसूत्र ठीक करो,
-जी माँ जी और फिर ये सुनके अपनी तन्हाई और प्रतृगया के साथ आगे बढ़ने के लिए मैंने खुद ही फ़ोन काट दिया ........




Wednesday, 9 September 2015

मेरी बालकनी के कबूतर

मेरी बालकनी के कबूतर
खुद की ही बनायीं हुई दिनचर्या से जब मैं थक जाता हूँ या थकने का बहाना बनाता हूँ , तो मैं अपनी बालकनी में कुर्सी लगा कर भेठ जाता हूँ ,
जहाँ रोज़ मेरी मुलाकात मेरे सबसे प्यारे , घनिष्ट , अनन्य दोस्तों से होती है ,मेरी बालकनी के कबूतर ................
वो 6 है या 7 या 8 मुझे नहीं पता , लेकिन कैसे है ये मुझसे बेहतर कोई नहीं जनता , हर सुबह उन्हें देखने से शुरू होती है और हर दिन बालकनी का दरवाजा लगाते समय शुभरात्रि कहके सोने से खत्म होता है …
कभी मैं उनको अपनी ग़ज़लें सुनाता हूँ कभी वो मुझे उनके गीत सुनाते है ,
उनमे  से 2 एक ही जगह पे अपना घर बना कर टिके है , नए कबूतरों के सृजन के लिए और बाकी कबूतर उड़ते रहते है , कभी पेड़ पे , कभी बालकनी में ही , तो कभी हवाओं  से हाल पूछ आते है ..........
2 कबूतर ऐसे है जो कमरे में रखी टेबल के नीचे घर बनाने के लिए निरंतर प्रयास करते है , दिन भर , लकडियो को जमा करते है एक एक करके ,
और जब वो अंदर लकड़ी ला रहे होते है और मैं उन्हें देख लूँ तो इतने सीधे बन जाते है जितना सीधा वो लड़का भी नहीं बनता जिसे लड़की अपने माता पिता से मिलवाने लायी है ,
मुझे नज़रअंदाज़ करके , जैसे देखा भी ना हो , चुप चाप वापिस मूड जाते है ,
कुछ ऐसे ही है मेरे दोस्त।
कभी कभी पुरे घर का चक्कर लगा लेंगे तो कभी मेरे डाले हुए चावल भी नहीं खाएंगे ……
वे इतने सुन्दर है की उन्हें देखने के बाद किसी को देखने का मन नहीं करता , रंगो से भरा मुलायम कंठ , फड़फड़ाते पंख , और प्रेम करने के इच्छा , उनका सोंद्रय वर्णन करना बहुत ही मुश्किल है ,
वो मेरे अकेलेपन के साथी है , मेरी सफलताओ के साक्षी है , मेरी शायरी के श्रोता है , मेरी कहानी के किरदार है , मेरे दोस्त है ,
मेरे सबसे प्यारे दोस्त
मेरी बालकनी के कबूतर ............................ 

Sunday, 6 September 2015

भगवान

भगवान् क्या हे 
कुछ कहते हे ईशवर हे कुछ अल्लाह कुछ जीसस तो कोई कुछ और 
कोई कहता हे मंदिर में हे कोई मस्ज़िद में कोई कहा तो कोई कहा 
कोई तो कहता हे आसमान में हे कोई धरा में बताता हे 
कोई कहता हे हर चीज़ में हे

कोई कहता हे हम सब में हे 
महावीर ने कहा परमात्मा नहीं हे तो

बुद्धा ने कहा परमात्मा तो नहीं हे पर आत्मा भी नहीं हे

भगवान् क्या हे


जब किसी कि जान बचती हे तो वो कहता हे भगवान् बचा लिया 
जब कोई प्यारा हादसे का शिकार होता हे तो कहते हे भगवान् तूने क्या

किया 
क्या भगवान् वही हे जो सुनामी के रूप में लोगो कि जाने लेता हे
क्या भगवान् वही हे जो बारिश के रूप में किसानो कि मदद करता हे 
क्या भगवान् बहुत सारे हे 

या भगवान् एक ही हे
या भगवान् हे ही नहीं
तो कौन हे जो इस पुरे ब्रह्माण्ड को चला रहा हे 
भगवान् क्या हे 
हिन्दू होने के नाते मुझे ये बताया गया कि ३३ करोड़ देवी देवता हे 
अब में किसी से मिला नहीं पर मेने मान लिया
जो भगवान् करते थे सही हे
जो इंसान करे उसे तोला जाता हे इन्साफ के तराज़ू में भले वो २ शादिया

हो या युद्ध 
और भी बाते बतायी गयी जिन्हे मान लेना मेरा काम था
भगवान् को किसने पाया केसे पाया ये कौन बताएगा
क्या शास्त्र पड़ने से ईश्वर मिलेगा
क्या भजन करने से मिलेगा
और मिलके करना क्या हे इंसान बने हे तो इंसान से ही क्यों न मिले उसी प्यार से जिस प्यार से ईश्वर से मिलने कि चाह हे भगवान् क्या हे अंत में क्या लिखू क्या भगवान् वो नहीं जो दुसरो कि मदद करता हे क्या भगवान् वो नहीं जो अपना खाना भी गरीबो में बाँट देता हे क्या भगवान् होने के लिए शक्तियो कि ज़रूरत हे या इंसान होने के लिए इंसानियत कि ये सवाल घूमता रहता हे खेर भगवान् सबका भला करे।